पुणे न्यूज डेस्क: पुणे के सरकारी आदिवासी हॉस्टल में छात्राओं के आरोपों ने बेटियों की सुरक्षा और आज़ादी को लेकर एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है। छात्राओं का कहना है कि छुट्टियों से लौटने के बाद हॉस्टल में एंट्री से पहले उनसे प्रेग्नेंसी टेस्ट करवाया गया। यह मामला न सिर्फ समाज की सोच पर चोट करता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि बेटियों को आज भी हर कदम पर अपनी मर्यादा और आज़ादी साबित करनी पड़ती है। घर से बाहर निकली लड़की पर पहला सवाल यही होता है—कहाँ गई थी, क्यों देर हुई? जबकि लड़कों को इतनी पाबंदियों का सामना नहीं करना पड़ता।
महाराष्ट्र की आदिवासी विकास आयुक्त लीना बंसोड़ ने स्पष्ट कहा कि ऐसा कोई नियम नहीं है कि छात्राओं से इस तरह का टेस्ट कराया जाए। लेकिन हॉस्टल की लड़कियों का दावा है कि उन पर ज़बरदस्ती दबाव बनाया गया। यह हर उस लड़की की निजता और स्वतंत्रता पर सीधा हमला है, जो अपनी पढ़ाई और भविष्य के लिए घर से दूर रहती हैं। यह सवाल भी उठता है—आखिर सुरक्षा के नाम पर लड़कियों को कब तक शक के घेरे में रखा जाएगा?
हमारे समाज में लड़की से जुड़ी हर बात शक से शुरू होती है—वह किससे बात कर रही है, किसके साथ बाहर गई है, क्यों देर हो गई? नाइट-शिफ्ट में काम करने वाली महिलाओं पर चरित्र के शक की उंगलियां उठाई जाती हैं। पुणे की घटना में भी यही मानसिकता झलकती है—जैसे लड़कियां हमेशा किसी गलती की दोषी हों। मीडिया रिपोर्ट्स में यह भी सामने आया कि जो छात्रा टेस्ट कराने से मना करती है, उसे हॉस्टल में रहने की अनुमति नहीं दी जाती। यह रवैया साफ दर्शाता है कि लड़कियों को अब भी स्वतंत्र नागरिक नहीं, बल्कि निगरानी की वस्तु समझा जाता है।
अगर वास्तव में सुरक्षा की चिंता है तो प्रेग्नेंसी टेस्ट की बजाय सुरक्षित माहौल, योग्य वॉर्डन, मानसिक स्वास्थ्य काउंसलिंग और भरोसेमंद व्यवस्था की ज़रूरत है। बिना अनुमति मेडिकल टेस्ट करवाना कानून और संविधान दोनों का उल्लंघन है। बेटियों की सुरक्षा का मतलब उनके आत्मसम्मान के साथ खिलवाड़ नहीं हो सकता। जरूरत इस सोच को बदलने की है कि महिला को हर बार खुद को सही साबित करने के लिए अग्नि परीक्षा देनी ही पड़े।